बारिश की आत्मकथा निबंध | Barish Ki Aatmakatha Essay

रेडियो पर बारिश का गीत बज रहा था। हर तरफ जैसे बारिश के स्वागत की तैयारी हो रही थी। गीत के हर बोल बारिश की बूँदों में घुल-मिल गए थे। मिट्टी से उठती भीनी-भीनी खुशबू पूरे वातावरण को महका रही थी। जैसे ही बारिश ने यह गीत सुना, वह खुद से बातें करने लगी।  

बारिश की आत्मकथा निबंध

“कितना सुंदर गीत है! इंसान ने मुझे अपने जीवन में कितना गहराई से समेट लिया है। कभी-कभी वह मेरी कद्र करता है, लेकिन कई बार वही इंसान प्रकृति को नुकसान पहुंचाता है। इससे मुझे डर लगता है कि कहीं इस संतुलन को बिगाड़ न दे।  

“लेकिन मैं जानती हूं, इंसान अंदर से बहुत कोमल है। जब मैं उसके पास आती हूं, तो वह अपने सारे दुख भूलकर खुश हो जाता है। मेरी बूंदें उसकी भावनाओं को छू लेती हैं। और मैं भी बदले में धरती पर हरियाली बिछा देती हूं। उसकी मुस्कान देखकर मुझे खुशी मिलती है। शायद इसीलिए मुझे हर साल उसके पास लौटने की जल्दी रहती है।  

“साल में चार महीने मैं उसके साथ होती हूं। जैसे ही गर्मियां खत्म होती हैं, इंसान मेरी राह देखने लगता है। मैं भी बादलों की सवारी लेकर हवा के झोंकों के साथ उसकी ओर बढ़ती हूं।  

“उस पल का जादू ही अलग होता है। आकाश बादलों से भर जाता है, सूरज छिप जाता है, और चारों ओर हल्का अंधेरा छा जाता है। तेज हवाएं, बच्चों की तरह शरारत करती हैं। और फिर मैं बड़ी-बड़ी बूंदों के रूप में धरती को भिगो देती हूं। कभी-कभी तो मैं इतना बरसती हूं कि थक जाती हूं।  

“मेरे आने पर बच्चे नाचते-गाते हैं। मैं भी उनके साथ बच्चा बन जाती हूं। लेकिन जब थक जाती हूं, तो धीरे-धीरे रिमझिम फुहारों के साथ वापस आती हूं। मेरी नन्हीं बूँदों के स्पर्श से इंसान का मन भी कोमल हो जाता है। सूरज की किरणें मुझसे मिलने आती हैं, और हम मिलकर इंद्रधनुष बनाते हैं।  

“लेकिन इंसान का लालच मुझे दुखी करता है। बढ़ते प्रदूषण से मेरा पानी सूखने लगता है। मैं चाहकर भी बारिश नहीं कर पाती, और धरती सूख जाती है। इसे सूखा कहते हैं।  

“कभी-कभी प्रदूषण के कारण तापमान इतना बढ़ जाता है कि समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों में भर जाता है। मैं भारी हो जाती हूं, और बाढ़ के रूप में गिरती हूं। यह सब इंसान की वजह से होता है।  

“फिर भी, मुझे उम्मीद है कि इंसान समझदारी दिखाएगा। अगर उसने पर्यावरण का ख्याल रखा, तो हमारी यह अनमोल दोस्ती हमेशा बनी रहेगी।”  

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